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पटना, एजेंसी। एक वक्त था जब लालू यादव का सितारा अस्त होगा, ऐसा सोच पाना भी बिहार में आसान नहीं था। कहा जाता था- जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू। लेकिन बस एक गलती ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। चारा घोटाले के जरिए काला धन के तौर पर रुपए तो खूब बने, लेकिन लालू यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। अब तो वे चुनाव लड़ने के लिए भी अयोग्य हो चुके हैं। चारा घोटाले में लगे लोग इसमें इतना मुनाफा कमा रहे थे कि तब पशुपालन विभाग अपने बजट का पांच गुना रकम खर्च कर देता था और कोई इस पर आवाज नहीं उठाता था।
खजाने की हालत हो गई थी खस्ता, वेतन देने के लिए भी नहीं थे पैसे
यह 1995-96 का दौर था। लालू यादव तब पूरी ताकत में थे। बिहार के मुख्यमंत्री थे। यह वह दौर था जब सरकार के खजाने की हालत खस्ता हो गई थी। कई विभागों में कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पैसे नहीं थे। जुलाई 1995 में विजय शंकर दूबे वित्त विभाग के प्रमुख सचिव बने। खजाने का हाल देखकर उन्हें शक हुआ कि पैसा आखिर जा कहां रहा है? उन्होंने निगरानी बढ़ाई तो पता चला कि पशुपालनन विभाग अपने बजट से कई गुना अधिक रुपए खर्च कर रहा है। इसके बाद हिसाब-किताब शुरू हुआ, रिपोर्ट मांगी गई तो फर्जी बिल के सहारे हुआ घोटाला सामने आते गया। एक-एक कर कई जिलों में प्राथमिकी दर्ज होने लगी, लेकिन सरकार के स्तर पर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। बाद में मामले ने राजनीतिक रूप लिया और इसकी जांच सीबीआइ को सौंप दी गई।
सीबीआइ और केंद्र सरकार को भी प्रभावित करने की कोशिश
लालू यादव ने इस केस में अपने प्रभाव का इस्तेमाल सीबीआइ जांच को प्रभावित करने के लिए भी किया। उन्होंने केंद्र की सरकार तक पर दबाव बनाया। देवगौड़ा सरकार पर उनके दबाव बनाने के किस्से खूब कहे-सुने जाते हैं। इसका कई बार फायदा होता भी दिखा। उनके मुकदमे में सुनवाई कभी तेज तो कभी सुस्त रही। जब-जब केंद्र में उनके अनुकूल सरकार बनी, सुनवाई की रफ्तार धीमी होती दिखी। हालांकि सीबीआइ ने इस मामले में चार्जशीट बेहद तगड़े ढंग से प्रस्तुत की थी, जिसके कारण लालू यादव के बच निकलने की संभावना कम होती गई।