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दिल्ली, एजेंसी। राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए के स्थापना दिवस पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह कहना उल्लेखनीय है कि वह मानवाधिकार संगठनों से कुछ मतभेद रखते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब भी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई होती है, तब कुछ मानवाधिकार समूह उसके विरोध में आ जाते हैं। यह एक सच्चाई है और यह काम केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी होता है। इसी कारण बीते दिनों विदेश मंत्री जयशंकर ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि भारत भी अमेरिका में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर नजर बनाए हुए है। उन्हें यह टिप्पणी इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि अमेरिकी विदेश मंत्री ने यह कहा था कि उनका देश भारत में मानवाधिकारों के हनन की निगरानी कर रहा है।यह अच्छा हुआ कि भारत ने अमेरिकी सांसद इल्हान उमर के पाकिस्तान दौरे के समय उनकी गुलाम कश्मीर की यात्र पर भी दो टूक शब्दों में कहा कि यह उनकी ओछी राजनीति का परिचायक है। समस्या केवल यह नहीं है कि कुछ देश संकीर्ण इरादों से लैस होकर मानवाधिकारों के मामले में भारत को उपदेश देना अपना अधिकार समझते हैं, बल्कि यह भी है कि मानव अधिकारों की बात करने वाले कई ऐसे नेता और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठन हैं, जो यह काम खुले दुराग्रह के साथ करते हैं। ऐसा करते हुए वे आतंकियों की करतूत की अनदेखी ही करते हैं।
जैसे मानवाधिकार की आड़ लेकर अपने अन्य इरादों की पूर्ति का काम विभिन्न देश और उनके संगठन करते हैं, वैसे ही स्वदेश में यही काम कुछ राजनीतिक दल भी करते हैं। अपने देश में आतंकवाद का शायद ही कोई मामला ऐसा हो, जिस पर छिछली राजनीति न की जाती हो। इस राजनीति का निकृष्ट रूप तब देखने को मिला था, जब मुंबई हमले को आरएसएस की साजिश बताने की कोशिश की गई। यह भी किसी से छिपा नहीं कि किस तरह हिंदू संगठनों को लश्कर और जैश से भी अधिक खतरनाक बताया गया या फिर बाटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी बताने की होड़ लगी अथवा आतंकियों के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस लेने की कोशिश की गई।
क्या इससे खराब बात और कोई हो सकती है कि राजनीति आतंकवाद से लड़ने में बाधक बने? वोट बैंक की ताक में रहने वाली इस सस्ती राजनीति की अनदेखी कर आतंक और खासकर कश्मीर के आतंकवाद के खिलाफ अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। इसी तरह नक्सलवाद के खिलाफ भी।