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अनिल सोनी, एजेंसी। नगालैंड में सुरक्षा बलों द्वारा अनजाने में 14 नागरिकों का मारा जाना एक अत्यंत दुखद घटना है। दुर्भाग्य से वहां सक्रिय उग्रवादी और उनके समर्थक घटना के तथ्यों को विरूपित कर राजनीतिक लाभ उठाने की फिराक में हैं। यह घटना नगालैंड के मोन जिले में हुई, जो कोनयक नगा क्षेत्र है। कोनयक नगा सामान्यत: सरकार के समर्थक हैं। जानकारी के अनुसार कुछ श्रमिक कोयला खदान से पिकअप वैन पर सवार होकर घर लौट रहे थे। सुरक्षा बलों को सूचना थी कि एनएससीएन (के) गुट के उग्रवादी उस क्षेत्र से गुजरने वाले हैं।सेना के जवानों ने गाड़ी रोकने का इशारा किया, परंतु ड्राइवर ने गाड़ी और तेजी से दौड़ाई। इस पर सैनिकों को शक हुआ और उन्होंने गोली चला दी, जिसमें आठ श्रमिक मारे गए। गोलीबारी की आवाज सुनकर स्थानीय ग्रामीण आ गए। श्रमिकों के शव देखकर वे उत्तेजित हो गए और उन्होंने जवाबी हमला कर दिया। तब प्रत्युत्तर में सैनिकों ने आत्मरक्षा के लिए गोली चलाई, जिसमें छह अन्य ग्रामीण मारे गए और एक सैनिक की भी मृत्यु हो गई। कई सैनिक घायल भी हो गए। घटना का संज्ञान लेते हुए सेना ने मेजर जनरल के नेतृत्व में एक कोर्ट आफ इंक्वायरी का आदेश दे दिया है। राज्य सरकार ने भी एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम का गठन किया है और उसे एक महीने के भीतर जांच पूरी करने का निर्देश दिया है। वहीं केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में घटना को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया और कहा कि गलत पहचान के कारण यह हादसा हुआ। यहां यह बताना आवश्यक है कि विद्रोहियों के दमन में ऐसी घटनाएं दुनिया भर में यदा-कदा होती रहती हैं।
इस संदर्भ में अन्य देशों से कुछ उदाहरण देना समीचीन
होगा। इराक में एक मार्च 2017 को मोसुल के पास आइएस के ठिकानों पर हमले की चपेट में 14 नागरिक भी आ गए, क्योंकि जो बम छोड़ा गया था उसकी वजह से पास में रखे ज्वलनशील पदार्थो में आग लग गई थी। सीरिया में 15 जुलाई 2017 को इस्लामिक स्टेट के चार ठिकानों पर गोलीबारी करते करते समय दुर्भाग्य से 13 नागरिक भी मारे गए, क्योंकि उनकी उपस्थिति निशाने के आसपास ही थी। अफगानिस्तान के आंकड़े तो भयावह हैं। वर्ष 2016 से 2020 के बीच एक आकलन के अनुसार, हवाई हमले में कुल 2,122 नागरिक मारे गए और 1,855 घायल हुए। इन हमलों में बड़ी संख्या में बच्चे प्रभावित हुए। मृतकों और घायलों में 40 प्रतिशत बेहद कम उम्र के बच्चों के होने से इसकी पुष्टि होती है। 30 अगस्त 2021 को अमेरिकी ड्रोन हमले से जो क्षति हुई, वह विशेष चर्चा का विषय रही। अमेरिकी सेना को खबर मिली थी कि आइएस खुरासान के कुछ आत्मघाती हमलावर गाड़ी से जाने वाले हैं। जनरल मार्क मिले के अनुसार गोपनीय सूचना विश्वसनीय थी। इस आधार पर अमेरिकी सैनिकों ने काबुल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास ड्रोन हमला किया। उसमें कोई आतंकी नहीं मारा गया, परंतु 10 निर्दोष लोगों की जान चली गई। अमेरिका ऐसी घटनाओं को ‘कोलेटरल डैमेज’ कहकर रफा-दफा कर देता है। वहीं भारत में ऐसी घटनाओं पर संबधित सुरक्षा बल अथवा सरकार द्वारा आवश्यकतानुसार उचित कार्रवाई की जाती है।नगालैंड की घटना के संदर्भ में यह आवश्यक है कि जांच शीघ्र संपन्न कराकर उचित कार्रवाई की जाए। यदि यह पाया जाता है कि सेना ने अत्यधिक बल प्रयोग किया या उसकी नीयत में खोट था, तो संबंधित अधिकारियों को अवश्य दंड दिया जाना चाहिए। जांच में समय लग सकता है, इस बीच हमें क्षेत्र के नागरिकों से संपर्क कर उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा सेना वास्तव में आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई कर रही थी और जो कुछ हुआ उसका भारत सरकार को अत्यंत खेद है। जिन परिवारों के लोग मारे गए हैं उन्हें समुचित मुआवजा दिया जाना चाहिए और परिवार के एक सदस्य को यथासंभव सरकारी नौकरी में लिया जाए। खेद का विषय है कि इस घटना से कुछ लोग, जिनकी हमदर्दी या झुकाव विद्रोही संगठनों के प्रति है, अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं। सेना के विरुद्ध दुष्प्रचार हो रहा है और कुछ वर्ग तो नगालैंड से ही सेना को हटाने की मांग कर रहे हैं। एनएससीएन (आइ-एम) के नेता अंदर ही अंदर खुश हो रहे होंगे कि उन्हें भारत सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार का एक मौका मिल गया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुरक्षा बल बड़ी कठिन परिस्थितियों में ऐसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, जहां अनेक संगठन अलग-अलग मांगों को लेकर विद्रोह कर रहे हैं। अतीत में भारत सरकार ने नगा विद्रोहियों से समय-समय पर समझौते भी किए, परंतु विद्रोहियों का एक वर्ग हमेशा नए मुद्दे उठाकर बगावत करता रहा।वर्ष 1963 में नगालैंड को एक अलग राज्य का दर्जा दिया गया। फिर भी विद्रोह की चिंगारी नहीं बुझी। 1975 में शिलांग समझौता हुआ, परंतु एनएससीएन (आइ-एम) के लोग उससे भी मुकर गए। वर्ष 2015 में एक ‘फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ पर सहमति बनी, परंतु एनएससीएन (आइ-एम) एक अलग संविधान और एक अलग झंडे की मांग पर अड़ा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मांगों का कोई अंत ही नहीं है। आप कितना भी देते जाइए, विद्रोही संगठन और मांगते रहते हैं। अगर यह कहा जाए कि एनएससीएन (आइ-एम) भारत सरकार को बराबर ब्लैकमेल करता आ रहा है तो शायद अतिशयोक्ति न होगी।
इस संदर्भ में ‘आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट’ (अफस्पा) को समाप्त करने की भी मांग उठी है। नगालैंड और मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने भी इस पर आवाज उठाई है। इसमें संदेह नहीं कि इस अधिनियम के औचित्य को लेकर तमाम लोगों को शंका है। जस्टिस जीवन रेड्डी कमीशन ने 2005 में इसे वापस लेने की बात कही थी। वैसे भारत सरकार अपने स्तर पर ही धीरे-धीरे इस अधिनियम को स्वयं वापस ले रही है। त्रिपुरा में 2015 में और मेघालय में 2018 में यह अधिनियम समाप्त कर दिया गया था। वर्तमान में यह अधिनियम असम, नगालैंड और मणिपुर (इंफाल म्युनिसिपल क्षेत्र को छोड़कर) में पूर्णतया और अरुणाचल के केवल तीन जिलों में लागू है। इस अधिनियम को बनाए रहने की जरूरत पर पुनर्विचार हो सकता है, बस हमें यह ध्यान रखना होगा कि मानवाधिकार के तराजू पर राष्ट्रीय सुरक्षा की बलि न चढ़ा दी जाए।

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