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नई दिल्ली। 84 साल पहले बांग्लादेश के मयमोन सिंह जिले के इटाई ग्राम के एक जमींदार परिवार में उनका जन्म हुआ था। वर्तमान में मयमोन सिंह बांग्लादेश का एजुकेशनल हब बनकर उभर रहा है। 80-100 साल पहले भी यह जिला प्रतिष्ठित पढ़े-लिखे हिंदू परिवारों के नाम से पहचाना जाता था। बेशक तब भी बांग्लादेश सहित मयमोन सिंह में मुस्लिम आबादी ज्यादा थी, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्तर पर हिंदुओं का ही दखल ज्यादा था।जमींदारी के साथ डॉक्टर, बैरिस्टर (वकील), शिक्षक, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी जैसी जगहों पर हिंदुओं का वर्चस्व था। इसी जिले के जिस इटाई ग्राम में सन् 2010 तक भी बिजली नहीं पहुंची थी, उस वक्त वहां चौथी तक का एक बड़ा नामचीन स्कूल था, जिसे इसी गांव के कुछ प्रतिष्ठित परिवारों ने मिलकर स्थापित किया था। उन्हीं में से एक थे प्रोदीप कुमार देब के दादाजी दुर्गाचरोण देब और पिताजी हेमोंतो कुमार देब।
बांग्लादेश के इटाई गांव के इसी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ली प्रदीप कुमार देब।
बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज शिबपुर से सिविल इंजीनियरिंग करने के बाद लगभग तीन दशक तक यूएस में काम कर चुके प्रोदीप कुमार देब कहते हैैं मेरी प्रारंभिक शिक्षा उसी स्कूल में हुई। आज भी मेरी स्मृतियों में वे पल जीवित हैैं। वैसे तो बांग्लादेश में हमारी सात पीढ़ी का प्रमाण मौजूद हैै, लेकिन इटाई गांव में हमारी पांचवीं पीढ़ी थी। उस समय 25 एकड़ जमीन, बांस वन (जंगल) और कई तालाब थे। परिवार में शिक्षा पर बेहद जोर होने की वजह से मेरी दादी तीन भाइयों को लेकर मायमोन सिंह शहर में घर किराए पर लेकर रहती थीं। स्कूली शिक्षा वहीं पूरी हुई। इस अवधि में मैैंने हिंदुओं पर कई छोटे-बड़े हमले देखे। आम तौर पर हिंदुओं के घर जला दिए जाते थे। गांव में हमारे परिवार का बहुत मान-सम्मान होने की वजह से कभी हम पर आंच नहीं आई, लेकिन आस-पास होने वाली घटनाओं ने हमें भी डराना शुरू कर दिया।15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। विभाजन की लकीर खींची गई और लोगों को यह चुनने का अधिकार दिया गया कि वे बांग्लादेश (तब पाकिस्तान) में रहना चाहते हैैं या भारत? स्कूल में प्राचार्य रहे मेरे बड़े भाई अरुण कुमार देब ने विभाजन के बाद भारत में आने का फैसला लिया। यह सिर्फ एक भावुक फैसला नहीं था, बल्कि बांग्लादेश में हिंदुओं के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को भांपकर उठाया गया कदम था। वे भारत आ गए और हम सब पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में रह गए। आज भी वह दिन याद है… 4 जनवरी 1949। मैैं बड़े भाई के पास भारत आ गया। मेेरे माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्य तब भी बांग्लादेश में रहते थे। हम लोग साल में दो बार दुर्गा पूजा और गर्मियों की छुट्टियों में बांग्लादेश जाते थे। यह सिलसिला 1950 तक चलता रहा। उसके बाद से हालत बिगड़ने लगे। एक चीज जो गौर करने वाली है कि वहां कभी एक साथ पूरे देश में हिंदुओं पर हमले नहीं हुए। एक या दो गांव में घटनाएं होती और फिर एक लंबे अंतराल के लिए सबकुछ शांत हो जाता। उस घटना के बाद उस गांव व आसपास के कई गांवों के हिंदू परिवार विस्थापित हो जाते।
बांग्लादेश के इटाई गांव में पैतृक घर के सामने प्रदीप कुमार देब।
फिर एक लंबे अंतराल (कई सालों तक) तक सबकुछ शांत रहता। लगता था कि सबकुछ ठीक है और फिर कोई न कोई घटना हो जाती थी। जून 1950 में इसी तरह दंगा भड़का था। उस समय मेरे परिवार के 22 सदस्य सब कुछ छोड़कर एक कपड़े में रातों-रात भारत आ गए थे। भारत आने के लिए तब सीधी ट्रेन नहीं हुआ करती थी। स्टीमर से ….नदी पार करना पड़ती थी और फिर दो ट्रेन बदलकर भारत पहुंचना पड़ता था। इसके बाद भी देश (बांग्लादेश)से नाता नहीं टूटा था। मेरे माता-पिता वहीं थे, क्योंकि मेरे सहित परिवार के कई बच्चे तब पढ़ाई कर रहे थे। कोई इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की पढ़ाई में था और फीस का बड़ा खर्चा। हमारे पास आय के उतने स्रोत नहीं थे। ऐसे में मेरे माता-पिता हेमोंतो कुमार देब और चपोला देब वहीं रुक गए। इस दौरान भी कई घटनाएं होती रहीं। हालांकि हमारे परिवार को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया, लेकिन असुरक्षा के भाव के चलते मार्च 1961 में मैं और मेरे भाई अनिल देब देख-रेख करने वाले को गोली मार दी, माता-पिता को लेकर भारत आ गए। हमने गांव में रही रहने वाले योगेश नाथ को घर और जमीन के देखरेख की जिम्मेदारी सौंप दी थी। बाद में खबर आई कि अराजक तत्वों ने योगेश नाथ की गोली मारकर हत्या कर दी। उसके बाद धीरे-धीरे मकान, जमीन, तालाब सभी पर कब्जा हो गया।
भारत आजाद हो गया और हम पाकिस्तान में छूट गए…और फिर हमको बंगाल की माटी से बेघर कर दिया गया…। यह एक अजीब सी अनुभूति है, जो बांग्लादेश छोड़कर गया हर हिंदू परिवार आज भी महसूस करता होगा।
इस यात्रा की दूसरी पारी शुरू होती है वर्ष 2010 से। इंजीनियरिंग करने के बाद प्रोदीप कुमार देब ने लगभग तीन दशक यूएस में बिताया। बतौर इंजीनियर वे एडीबी प्रोजेक्ट से जुड़े और उन्हें बांग्लादेश के 51 जिलों में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट का काम मिला। बतौर टीम लीडर बांग्लादेश में रहकर ढाई साल काम किया। वे कहते हैैं इस दौरान मुझे सिर्फ अपने गांव इटाई ही नहीं, बल्कि पूरे बांग्लादेश में घूमने का मौका मिला। मेरी स्मृतियों का बांग्लादेश धर्मनिरपेक्ष था। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषा से परे, एक बोली-एक संस्कृति (बांग्ला) का देश। 61 सालों में यह लगभग पूरी तरह बदल चुका था। गांव का प्राथमिक स्कूल अब हाई स्कूल में बदल चुका है। छोटा-सा गांव तहसील बन चुका है। मयमोन सिंह जिले को संभाग का दर्जा मिल चुका है और बांग्लादेश के प्रमुख उन्नत शहरों में शामिल हो गया है। इन सबके बावजूद अपने गांव जाने और लोगों से मिलने के लिए मुझे उन्हें यकीन दिलाना पड़ा कि मैं जमीन-जायदाद वापस नहीं लूंगा। दरअसल, यदि आप सिर्फ घूमने या पुरखों को याद करने जा रहे हैं तो गांव वाले स्वागत करेंगे। मगर, वहां कोई नहीं चाहता कि देश छोड़कर गए हिंदू परिवार कभी लौटकर आएं।
तब गांव का मंदिर सुरक्षित था, अब पता नहीं
मंदिरों को तोड़े जाने और पूजा पंडालों पर हमले की घटनाओं के बीच एक चीज जो सुखद थी, कि 2012 तक भी गांव में स्थित दुर्गा-काली मंदिर सुरक्षित था। गांव वाले ही उसका संरक्षण करते थे। अब क्या स्थिति है यह नहीं बता सकता।