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नई दिल्ली, एजेंसी। हिंदी साहित्य में कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर नियमित अंतराल के बाद विमर्श होते रहते हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है स्त्री विमर्श का। स्त्री विमर्श के मुद्दे पर हिंदी के छोटे-मंझोले से लेकर बड़े लेखक तक टिप्पणियां करके सुर्खियां बटोरते रहते हैं। जब इंटरनेट मीडिया के प्लेटफार्म्स नहीं थे तो राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका हंस के माध्यम से इस मुद्दे को हवा देते रहते थे। हंस में होने वाली चर्चा की देखा-देखी अन्य साहित्यिक पत्रिकाएँ भी स्त्रियों के मुद्दे पर बहस करवाते थे।अब हिंदी साहित्य की चर्चा का मंच फेसबुक हो गया है। राजेन्द्र यादव ने जिस स्त्री विमर्श को हिंदी साहित्य में चर्चित किया था अब वो विमर्श उससे आगे निकल गया है। राजेन्द्र यादव ने जिस स्त्री गाथा को आरंभ किया था अब उसकी उत्तर गाथा या उत्तर आअधुनिक गाथा लिखी जा रही है। फ्रांसीसी लेखिका सीमोन द बोउवा की 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ से यादव बहुत प्रभावित थे। उसके आधार पर ही उन्होंने हिंदी में विमर्श चलाया। इसकी नकल पर बाद में हिंदी के कई लेखक स्त्री विमर्श का झंडा उठाकर चलने लगे।
सीमोन विवाह संस्था का विरोध करती थीं। अल्जीरिया के मुक्ति संग्राम के समय कनाडा की सरकार ने उनके एक साक्षात्कार पर इस वजह से प्रतिबंध लगा दिया था कि वो विवाह संस्था का विरोध करती थीं। राजेन्द्र यादव ने सीमोन के लेख से स्त्री विमर्श के सूत्र निकाले और हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को परोक्ष रूप से देह विमर्श में तब्दील कर दिया। वही देह विमर्श अब विद्रूप रूप में सर्वजनिक बहस का हिस्सा बनने लगा है। पश्चिमी समाज और सिद्धांत के अंधानुकरण से हिंदी में स्त्री विमर्श भारतीय संदर्भों से कटता चला गया।
भारतीय संस्कृति में स्त्री हमेशा से सबल रही हैं। उनको तमाम तरह के अधिकार प्राप्त रहे हैं। यहां की स्त्रियों की आदर्श तो सावित्री रही हैं। वो सावित्री जिनको मालूम होता है कि सत्यवान की आयु एक वर्ष ही बची है, बावजूद इसके उसने सत्यवान से ही विवाह किया। पति से उनके प्रेम के आगे यमराज को भी झुकना पड़ा था। हमारे यहां तो कुंती और द्रोपदी जैसी स्त्रियां हैं जिनके आचार और व्यवहार के आधार पर स्त्री विमर्श की बात की जानी चाहिए। प्राचीन काल से ये परंपरा रही है कि स्त्रियां अपना वर खुद चुनेंगी। स्वयंवरों की परंपरा लंबे समय तक चलती रही है।
तमाम तरह की बाधाओं को झेलते हुए भी पिता और भाई भी अपने परिवार की स्त्री की इच्छा का मान रखते थे। हमारे प्राचीन ग्रंथों में इस तरह की अनेक कहानियां मिलती हैं। जब हम भारतीय समाज और भारतीय स्त्रियों के व्यवहार को विदेशी समाज और विदेशी मान्यताओं और सिद्धांतों के आधार पर आकलन करने लगते हैं तो विमर्श का भटकना स्वाभाविक है। ये मानसिकता की बात है। इस संदर्भ में एक आधुनिक उदाहरण देना चाहूंगा। फिल्म मदर इंडिया का नामांकन आस्कर पुरस्कार हेतु हुआ था। ये फिल्म जूरी के सामने पहुंची और जूरी ने इसको देखकर इस फिल्म को पुरस्कार योग्य नहीं माना।
उनका तर्क था कि कहानी बहुत हल्की और हास्यास्पद है। नायिका राधा, जिसकी भूमिका नर्गिस ने निभाई थी, अपने बेटों को खाना नहीं खिला पाने की वजह से परेशान थी। वो मदद के लिए सुखीलाला, जिसको कन्हैया लाल ने अभिनीत किया, के पास जाती है। सुखीलाला उसपर आसक्त है और उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करता है, नर्गिस उसकी पिटाई करके वहां से निकल जाती है। इस दृश्य को देखकर उस समय जूरी के सदस्य ने कहा था कि जब नायिका इतनी परेशान थी तो उसको लाला की सेक्सुअल फेवर की मांग मानने में दिक्कत क्या थी।
जूरी के एक और सदस्य ने नर्गिस के अपने बेटे को गोली मार देने के दृश्य का उपहास उड़ाया था। उसने कहा था कि अगर किसी के बेटे ने किसी लड़की को छेड़ दिया तो उसको जान से मारने की क्या जरूरत थी, ये दृश्य हास्यास्पद हैं। जूरी के सदस्य नर्गिस के उस संवाद की गहराई या भारतीय समाज की मानसिकता को समझ ही नहीं पाए जहां वो कहती है कि बेटा दे सकती हूं, लाज नहीं। ये भारतीय समाज है, ये भारत की स्त्री है, ये भारतीय स्त्री का मन है, जिसको विदेशी कभी नहीं समझ पाएंगे। मदर इंडिया को आस्कर नहीं मिला।
हिंदी साहित्य में फेसबुक जैसे माध्यमों पर स्त्री विमर्श करने वाले अपने पौराणिक ग्रंथों को संदर्भ से काटकर उद्धृत करते रहे हैं। पिछले दिनों ये पढ़ने को मिला कि मनुस्मृति में ये उल्लिखित है कि वर पक्ष से धन देकर कन्या का विवाह किया जाता था। बलात्कारियों से शादी का प्रविधान भी मनुस्मृति में मिलता है, आदि आदि। अब ये बातें बिल्कुल संदर्भ से काटकर और अज्ञानतावश की जाती हैं। मनुस्मृति में आठ तरह के विवाह का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मविवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापत्य विवाह, गांधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। फेसबुक पर जिन दो विवाहों की चर्चा की गई उसका नाम है असुर विवाह और पैशाच विवाह।
वर पक्ष से धन लेकर कन्या को विवाह के लिए सौंपने को मनु संहिता में असुर विवाह कहा गया है। इसी तरह बलात्कारियों के साथ कन्या का विवाह का प्रस्ताव या विवाह करने को पैशाच विवाह कहा गया है। विवाह के लिए हत्या करने और उसके बाद होने वाली शादी को राक्षस विवाह कहा गया है। बाकी पांचों प्रकार के विवाह में स्त्री का सम्मान होता है। कन्या का विवाह सुयोग्य वर से, माता पिता की इच्छा से, कन्यादान से और स्त्री पुरुष के व्यक्तिगत फैसले को समाजिक वैधता देना आदि रहा है। शकुंतला दुश्यंत, नल-दमयंती आदि की कहानियां हमारे सामने हैं। अज्ञानियों को तो बस नकारात्मक चीजें ही दिखती हैं। फेसबुक के स्त्री विमर्शकारों को भारतीय समाज और इसकी परंपराओं को पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।
हमारे देश में वामपंथियों ने भी स्त्री विमर्श के नाम पर खूब नारेबाजी की लेकिन उनकी कथनी और करनी में अंतर रहा है। कम्यून में स्त्रियों पर किस तरह के अत्याचार होते रहे हैं इसको कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट किया है। यहां तक कि सीमोन ने भी माना था कि स्त्रियों की समस्याएं साम्यवाद से नहीं सुलझ सकती हैं। भारत में स्त्रियों को लेकर हमेशा से एक आदर और समानता का भाव रहा है लेकिन जब हम परतंत्र हुए और विदेशी आक्रांताओं ने अपनी संस्कृति को हमारे देश पर थोपी तब यहां की महिलाओं की स्थिति बदतर हुई।
हमारे पौराणिक ग्रंथों के आधार पर ये कहा जा सकता है कि महिलाओं के लिए समाज में खुलापन था। भारतीय राजाओं के दरबार में रानियों के अलग से बैठने की व्यवस्था होती थी और वो दरबार के दैनंदिन क्रियाकलापों में अपनी राय रख सकती थीं, अपनी असहमतियां प्रकट कर सकती थीं। मुगल सम्राज्य की स्थापना के बाद ये खुलापन खत्म हो गया। विदेशियों के राज में ये संभव नहीं रहा। स्त्री विमर्शकारों के साथ भी वही दिक्कत है जो हिंदी के कुछ फिल्मकारों के साथ है। वो जेम्स हेडली चेज या मिल्स एंड बून के उपन्यास पढ़कर रोमांस गढ़ते हैं।
उनको कालिदास के ग्रंथों में वर्णित रोमांस का पता ही नहीं है। उनको विद्यापति की नायिकाओं के प्रणय प्रसंगों का उसके प्रभावों के बारे में जानकारी ही नहीं है। विदेशी उपन्यासों के आधार पर गढ़े गए रोमांटिक दृश्य जिस तरह से फूहड़ और अश्लील हो जाते हैं उसी तरह पश्चिमी स्त्री विमर्श की नकल के आधार पर भारतीय स्त्रियों को लेकर किया जाना वाला विमर्श भी फूहड़ और उथला होता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारतीय स्त्री की समस्याओं को भारतीय संदर्भों में समझने की कोशिश की जाए।

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