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भोपाल। एमपी कानून बनाने का अधिकार विधायिका के पास है, लेकिन कई बार हमने बताया है कि कैसे विधानसभा की कार्यवाही चंद घंटों में सिमट जाती है. कई बार लोकतांत्रिक व्यवस्था में बगैर चर्चा के कानून बन रहे हैं, पास हो रहे हैं ऐसे में विधानसभा का औचित्य क्या रह जाएगा. मध्यप्रदेश की बात करें तो पिछले कुछ सालों से यहां की विधानसभा में बनने वाले कानून इसलिए चिंता का विषय हो गए हैं कि इन्हें बनाने से पहले किसी प्रकार की कोई चर्चा सदन में नहीं हो रही है. 2021 में मध्य प्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र 4 दिनों के लिये बुलाया गया, दो दिन बाद ही अनिश्चितकाल के लिये स्थगित कर दिया गया. दो दिनों में सदन में बमुश्किल 2 घंटे की कार्रवाई में छह विधेयक और अनुपूरक बजट शोर शराबे के बीच पारित हो गया. इसमें मध्यप्रदेश आबकारी (संशोधन) बिल भी था, जिसमें जहरीली शराब के सेवन से होने वाली मौतों से संबंधित मामलों में मृत्युदंड और आजीवन कारावास का प्रावधान है.
मध्‍य प्रदेश विधानसभा की बात करें तो 2017 से कोई सत्र पूरा नहीं चला. मध्य प्रदेश के संसदीय इतिहास में 14वीं विधानसभा के दौरान सदन की कार्यवाही सबसे कम 130 दिन ही चली, इसमें भी 50 दिन हंगामे की भेंट चढ़ गए. सत्ता परिवर्तन हुआ तो कमलनाथ सरकार में पूछे गए  5315 सवालों में 4200 अमान्य हो गए. मौजूदा 15वीं विधानसभा में पिछले साल 16 मार्च 2020 को 17 बैठक प्रस्तावित थीं, 2 बैठक हुईं. 24 मार्च 2020 को 3 बैठक प्रस्तावित थीं, एक बैठक हुई, एक घंटे 26 मिनट तक. 21 सितंबर को 3 बैठक प्रस्तावित थीं, एक बैठक हुई वो भी सिर्फ 9 मिनट तक. सदन में आ रहे इस गतिरोध के लिए सत्ता और विपक्ष, एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहा है. मप्र सरकार के मंत्री विश्‍वास सारंग कहते हैं, ‘ दोषी तो कांग्रेस है. इसने सिर्फ़ राज्य की क्यों, लोकसभा में भी नेतृत्वहीनता का परिचय देते हुए हंगामे के माध्यम से पेपर की सुर्खियों में बने रहने का काम किया है. निश्चित रूप से कानून बनाने में गुण-दोष पर बात होनी चाहिये लेकिन कांग्रेस ने सदन को चलने में बाधा उत्पन्न की है.’मध्‍य प्रदेश विधानसभा का सालाना बजट लगभग सौ करोड़ रुपये हैं. 15 करोड़ रुपये अलग-अलग अनुदानों के भी मान लें तो 85 करोड़ रुपये विधायकों के वेतन-भत्ते, सचिवालय के अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतनभत्ते, बिजली बिल, पानी, साफ-सफाई पर खर्च होते हैं।

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