नई दिल्ली: भारत स्वाधीनता के 75वें वर्ष में पहुंच गया है। इतने वर्षों के बाद भी समान नागरिक संहिता नहीं बन पाई है। भारत जैसे प्रगतिशील देश के लिए समान नागरिक संहिता एक महत्वपूर्ण कदम होगी। इस दिशा में सरकार को तो प्रयत्न करना ही चाहिए, समाज से भी सहमति के सुर आना आवश्यक है। इस संहिता में आने वाले विविध विषय जैसे विवाह, उत्तराधिकार, अलगाव, बच्चों का संरक्षण, पैतृक संपत्ति का बंटवारा, गोद लेने की व्यवस्था एवं विवाह विच्छेद के बाद गुजारा भत्ता जैसे मामलों में यथासंभव समरूपता लाकर देश की प्रगतिशीलता को पल्लवित करना है।
अलग-अलग धर्मों के लोग इन विषयों के लिए अपनी प्रथाओं के अनुसार मामलों को नियोजित करते हैं। कुछ प्रथाएं सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध होने के साथ-साथ सामान्य मानविकी के स्वाभाविक विकास में अवरोधक है। इसलिए आज के वैज्ञानिक एवं तार्किक समाज में न्यायोचित व्यवस्था लाने के लिए पर्सनल ला से ऊपर प्रासंगिक एवं सर्वसमायोजित संहिता को लाना एक उचित कदम होगा।
उल्लेखनीय है कि जून 2016 में इस मामले को पहली बार 21वें विधि आयोग के पास भेजा गया था। आयोग ने परामर्श पत्र के माध्यम से लैंगिक न्याय और समानता लाने वाले विभिन्न परिवारिक कानूनों में व्यापक बदलाव का सुझाव दिया था। उस समय के कानून मंत्री ने समान नागरिक संहिता के संबंध में पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था कि इस विषय को 22वें विधि आयोग के पास भेज दिया गया है। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान में अनुच्छेद 44 में यह प्रविधान है कि राज्य संपूर्ण भारत क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। इस विषय को क्रमिक रूप में देखें तो हम पाते हैं कि हिंदू धर्म की कुछ कुप्रथाओं को खत्म कर नागरिक संहिता को प्रासंगिक करने का कार्य राजा राममोहन राय द्वारा लार्ड विलियम बेंटिंक की मदद से वर्ष 1829 किया गया। तत्पश्चात ऐसे अनेक कार्य हुए और अंतत: आजादी के पश्चात हिंदू समाज के लिए चार कानून पारित किए गए।
वर्ष 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम एवं 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम के पारित किया गया। इन अधिनियमों में ऐसे कोई भी व्यक्ति जो हिंदू धर्म के किसी भी रूप जैसे लिंगायत, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज आदि के अनुयायी हैं, उन सभी को सम्मिलित किया गया है। साथ ही जैन, बौद्ध एवं सिख समुदायों को भी इस अधिनियम में सम्मिलित किया गया। मुस्लिम समुदाय की घोर आपत्ति को लेकर न ही अंग्रेजों ने, यहां तक कि उसके बाद स्वतंत्र भारत में भी सरकारों द्वारा इस दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं किया गया।
मुस्लिम महिलाओं द्वारा मुखर विरोध एवं वर्तमान केंद्र सरकार के प्रयासों के फलस्वरूप टिपल तलाक को मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) कानून-2019 के जरिये गैर-जमानती अपराध घोषित करते हुए अभियुक्त पुरुषों के लिए तीन साल कारावास की सजा का प्रविधान किया गया है। वस्तुत: मुस्लिम समाज में विवाह अनुबंध है। साथ ही तलाक के अनेक प्रविधान हैं। विवाह, उत्तराधिकार, संरक्षकता आदि विषय शरीयत कानून के अनुसार होता है। बहुविवाह, तलाक के विभिन्न प्रकार, बच्चों के संरक्षण इत्यादि मामलों में शरीयत के प्रविधान प्रगतिशीलता एवं महिलाओं के लिए सशक्तीकरण के लिए उपयुक्त नहीं है। इसीलिए यह आवश्यक हो गया है कि भारत जैसे देश में सभी वर्गों, समूह एवं धर्मो के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाया जाए।
वर्तमान सरकार इस दिशा में पहल कर रही है। लेकिन समाज के भीतर से ही विरोध किए जा रहा है। इसलिए यह आवश्यक है कि लोगों को इसकी नितांतता से अवगत कराया जाए। एक सभ्य समाज में कुछ सामाजिक मूल्यों की समानता के साथ-साथ महिलाओं के अधिकार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। सभी धर्मो के लोगों को अपनी रूढ़िवादिता से ऊपर उठ कर इस दिशा में पहल करना पड़ेगा। समान नागरिक संहिता के कई प्रारूप पर विचार किया जा सकता है। पर मूल धार्मिक भावनाओं एवं सांस्कृतिक पद्धति को सम्मिलित करते हुए एक व्यापक एवं समग्र व्यवस्था पर विचार करना पड़ेगा। ऐसी व्यवस्था जिसमें महिलाओं के सापेक्ष अधिकारों के साथ समावेशित भारतीय पारिवारिक भावनाएं पोषित हो। जैसे विवाह सभी अपने धर्मो एवं रीति-रिवाज से करें, पर विवाह विच्छेद केवल कानूनी रूप से किया जाए। इसी तरह उत्तराधिकार के लिए भी समान नियम तय किए जाए।
वर्तमान घटनाक्रम पर बात करें तो इंदौर की एक संस्था के पत्र के जवाब में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री कार्यालय ने शीघ्र ही देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही है। कर्नाटक की स्कूली शिक्षा अधिनियम के तहत उठे हिजाब विवाद ने इस दिशा में गंभीरता से सोचने को मजबूर कर दिया है। राष्ट्र विरोधी तत्वों ने इस विवाद को हवा दी और इसका सीधा मतलब विश्व पटल पर भारत की छवि को धूमिल करना था।
यह प्रविधान इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि शैक्षणिक संस्थानों में किसी प्रकार की कोई लिंग, जाति, धर्म, रंग, जन्म स्थान इत्यादि का भेदभाव ना हो। केंद्र सरकार को समाज के हर वर्गो को विश्वास में लेकर इस क्षेत्र में मजबूत पहल करनी चाहिए जिनका सुखद परिणाम देश की प्रगति एवं सशक्तीकरण से जुड़ा है।
आज के वैज्ञानिक युग में हमें अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के साथ कुरीतियों एवं प्रगति विरोधी कृत्यों की बलि दे देनी चाहिए। आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक परिवर्तन आवश्यक है। भारत को विश्व पटल पर एक नई पहचान देने में समान नागरिक संहिता एक विशिष्ट पहल होगी। आशा की जा रही है कि विधि आयोग की रिपोर्ट प्राप्त होते ही वर्तमान केंद्र सरकार इसे लागू करने की प्रक्रिया आरंभ कर सकती है।