जगदलपुर: नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ में नक्सलियों की दहशत अब भी ऐसी है कि 50 से अधिक सरपंच अपने गांव नहीं लौट पा रहे। हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नारायणपुर जिला मुख्यालय के डीपीआरसी भवन से ही सभी सरपंच गांव की सरकार चला रहे हैं। सरपंच का चुनाव जीतने के बाद से ही इनका गांव से संपर्क पूरी तरह से टूट गया।

माओवादी चुनावों के बहिष्कार का ऐलान हर बार करते हैं।बहिष्कार के फरमान को नजरअंदाज कर सरपंच का चुनाव इन्होंने लड़ा। अब इसकी कीमत गांव छोड़कर इन्हें चुकानी पड़ रही है। पुलिस की सुरक्षा में सभी ने नारायणपुर को अपना नया ठिकाना बना लिया है। दहशत इस कदर है कि सरपंच अपने गांव का नाम भी नहीं लेते। कोई ऐसा काम नहीं करते, जिससे किसी की नाराजगी बढ़े। कैमरा सामने देख तो जैसे इन्हें करेंट लगता है। ऑफ द रिकॉर्ड सभी कहते हैं कि गांव जाने की इच्छा तो होती है, लेकिन जान का खतरा उनके कदम रोक लेता है।

गांव की समस्याएं लेकर मुख्यालय आने वाले लोगों से मिलकर सरपंचों को गांव के हालात का पता चलता है।ग्रामीणों की समस्याएं सुनते हैं और यथासंभव समाधान का प्रयास करते हैं। सरपंच रहते हुए तो जान का खतरा है, लेकिन सरपंची छोड़ चुके लोग भी माओवादियों के निशाने पर होते हैं। इसलिए इनकी बेरुखी स्वाभाविक मानी जा सकती है।

उदाहरण देते हुए कहते हैं कि 7 मार्च 2023 को सुकमा जिले के पोंगाभेज्जी में होली से ठीक पहले सरपंच पुनेम सन्ना की नक्सलियों ने डंडे से पीट-पीट कर हत्या कर दी।
24 नवंबर 2023 को अबूझमाड़ के कुरुषनार थाने के धुरबेड़ा गांव में पूर्व उप सरपंच दुलारु ध्रुव को माओवादियों ने मौत के घाट उतार दिया। 28 जून 2023 को नक्सलियों ने बुर्कापाल पंचायत की उपसरपंच माड़वी गंगा को मार डाला। चिंतागुफा थाना क्षेत्र के तोकनपल्ली में पूर्व सरपंच माड़वी दुला की हत्या नक्सलियों ने कर दी। ऐसे और भी नाम हैं, जिन्हें नक्सलियों ने या तो सरपंच रहते मारा या सरपंची छोड़ने के बाद।

विपक्ष इस मामले को और आगे बढ़ा कर आरोप मढ़ने से नहीं चूक रहा। पीसीसी चीफ कहते हैं कि यह हालात सिर्फ नारायणपुर में नहीं, बल्कि सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर में भी यही हालात हैं। लोग अपराधियों के हवाले हैं और राज्य में शांति व्यवस्था के हालात चिंताजनक हैं। पीसीसी प्रमुख कहते हैं कि भाजपा का शासन आते ही राज्य में अशांति फैल चुकी है और सरकार मूक दर्शक बनी हुई है।

सत्ता पक्ष का कहना है कि कांग्रेस के शासनकाल में नक्सली पूरी रकम डकार जाते थे। यह हालात अब नहीं हैं। हालांकि सत्ता पक्ष से जुड़े जवाबदार भी यह स्वीकार करते हैं कि नक्सलियों के फरमान का असर है और सरपंचों के अलावा भी ऐसे जनप्रतिनिधि हैं, जो भागे-भागे फिरने को मजबूर हैं। हालांकि यह स्थिति कहीं-कहीं पर ही है। प्रशासन ऐसे इलाके के नेताओं के साथ है और पूरी संवेदनशीलता के साथ इस मसले पर काम किया जा रहा है।

बस्तर में चुनाव-दर-चुनाव यही हालात कायम है। समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन नक्सलवाद की जड़ें इस कदर गहरी हो गई हैं कि इसमें मठा डालने के बावजूद स्थितियों में सुधार आने में वक्त लग रहा है। इन पंचायतों के हालात देखकर वह शेर याद आता है।

खत कबूतर किस तरह ले जाए बामे यार पर
पर कतरने को लगी हैं कैंचियां दीवार पर।।

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