जगदलपुर: माओवादी संगठनों की स्थिति अब बेहद नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है। बड़े नेताओं के मारे जाने और नेतृत्व संकट के चलते नक्सलवाद का प्रभाव तेजी से घट रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह आंदोलन अब “आखिरी सांसों” पर है। 


जानकारी के अनुसार, माओवादी संगठन के 12 पोलित ब्यूरो सदस्यों में से 8 मारे जा चुके हैं। सेंट्रल कमेटी के 24 सदस्यों में से भी ज्यादातर या तो मुठभेड़ों में मारे गए हैं, गिरफ्तार हुए हैं या स्वाभाविक मौत का शिकार हो चुके हैं। यह स्थिति माओवादी संगठन के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। 



विशेषज्ञों के अनुसार, माओवादी संगठन केवल बाहरी ही नहीं, बल्कि आंतरिक संकटों से भी जूझ रहा है। सुरक्षा बलों के बढ़ते अभियानों और विकास कार्यों ने माओवादी गढ़ों को कमजोर किया है। संगठन के भीतर विभाजन, संसाधनों की कमी और नेतृत्व के अभाव ने इसे और मुश्किल में डाल दिया है। 2004 में एमसीसी और पीपुल्सवार के विलय से बने “सीपीआई (माओवादी)” ने शुरुआत में देश के 6 राज्यों में प्रभाव जमाया। लेकिन हाल के वर्षों में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्यों में बड़े नेताओं की मौत के बाद संगठन की ताकत कमजोर पड़ गई है।  सुरक्षा बलों के बढ़ते अभियानों और नए कैंपों ने माओवादियों की गतिविधियों पर नकेल कस दी है। इसके अलावा, सरकार की विकास योजनाओं और जनता के बीच बढ़ते संपर्क ने भी माओवादी प्रभाव को कम करने में बड़ी भूमिका निभाई है। माओवादी संगठन नेतृत्व और रणनीति के संकट से गुजर रहा है। बस्तर क्षेत्र में माओवादियों की गतिविधियां घटी हैं, लेकिन कुछ इलाकों में वे अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या माओवादी संगठन इस संकट से उबर पाएंगे, या यह आंदोलन अपने अंत की ओर बढ़ रहा है? 

मौजूदा हालात को देखते हुए ऐसा लगता है कि नक्सलवाद का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। नए नेतृत्व और रणनीतियों के अभाव में यह आंदोलन लंबे समय तक टिकने में सक्षम नहीं दिखता। अब यह देखना होगा कि माओवादी संगठन इस संकट से उबरने के लिए क्या कदम उठाते हैं, या यह आंदोलन इतिहास का हिस्सा बन जाएगा।

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